Monday, May 13, 2019

नर्मदा आंदोलन का एक मोहरा चला गया : देवेन्द्र भाई को कार्यांजली जरूरी |
नर्मदा आंदोलन के वरिष्ठ और घनिष्ठ साथी देवेन्द्र सिंह तोमर कल रात हमें छोडकर चले गये | पिछले कुछ ही महीनों में जो जो साथी दूर गये हैं, उन सभी पर लिखना भी मेरे लिए संभव नहीं हो रहा | क्योंकि वे तो हम पर पूरा भार छोड़ कर, हमारे कंधे भी कमजोर होने जा रहे हैं, तो भी निकल पड़े हैं |
            देवेन्द्र भाई कल शाम, हाँस्पिटल के रास्ते, आंदोलन के कार्यालय के सामने से, गुजरते, सलाम करके गये | उनके बेटे – बेटी ---- सारे जान गये | चार ही दिन पहले उन्हें मुम्बई के अस्पताल ने वापस लौटने पर मैं मिलने गयी, साथियों के साथ, तब भी वे गदगद थे | कह रहे थे, मैं आशीष की पुण्यतिथी पर ‘युवा संवाद‘ कार्यक्रम में जरुर आऊँगा | उनके पांव फूले हुए थे, शरीर सूजन से लोथपोथ और आँखे बाहर निकलतीसी ...... फिर भी हम ने भी कहा, ‘जरुर’!
            देवेन्द्र भाई, जैसा उन्हें पुकारा जाता था, निमाड़ में आंदोलन की शुरुआत हुई तभी से जुड़े हुए साथीयों में से थे | उनका बड़ा परिवार निमाड़ के धार जिले के मनावर क्षेत्र के विशेष छोटे जमींदारों का था | उनके पूर्वजों ने 12 गावं बसायें थे , यह बात देवेन्द्र भाई , विस्थापन से लड़ते हुए अभिमान के साथ कहते थे | उस समय के राजा , जमीनदार ऐसा, इतना भी निर्माण करते थे, लेकिन आज के राजा तो उजाड़ने पर तुले हुए हैं ! लेकिन उन गावों में उनका रिश्ता अपनेपन के साथ नेतृत्वकारी रहा, जो आंदोलन के चलते हुए अधिक उभर कर आया | आंदोलन के साथ देवेन्द्र भाई के पिताजी जुड़े तब उनके कई सवाल थे |  वे थे राष्ट्रीय स्वयं सेवक के कट्टर समर्थक | लेकिन देवेन्द्र भाई का युवापन ही नहीं, खुलापन भी, जल्दी ही आंदोलन  की बातें पकड़ने में कामयाब हुआ | बाते थी, नदीकी, पर्यावरण की, भ्रष्टाचार रोकने की, समता की और सही विकास की | वे हर पर्चा / पत्रक, पुस्तक पढ़े और समझे बिना नहीं रहते थे | इसलिए अस्सल किसानी क्षेत्र में बुद्धीजीवी किसान ही एक प्रकार से थे |
देवेन्द्र भाई का विशेष कार्य सामने आया जो सामूहिक था, वह फर्जीवाड़ा स्थापित करने का | पुनर्वास में जमीन के बदले किसानों को नगद राशि किसानों की देने की योजना 2005 में मध्यप्रदेश सरकार ने, ट्रिब्यूनल के विपरित लायी, जिसमें दलाल – अधिकारीयों का गठजोड़ खड़ा होकर उसने फर्जी रजिस्ट्रीयां लगाकर, क्रेता – विक्रेताओं को फंसाया | इसकी पहली जांच दिवंगत कार्यकर्ता आशिष मंडलोई के साथ, देवेन्द्र भाई और अन्य 4 ने की जिसके लिए सूचना के अधिकार के उत्कृष्ट उपयोग के लिए उन्हें उपराष्ट्रपति के हस्ते पुरस्कार भी मिला | इस कांड की पोलखोल 2008 में नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के आदेश से बने न्या. झा आयोग की रिपोर्ट से 2016 में हुई | सात साल की  कानूनी जाँच की कारवाई में आंदोलन के सभी कार्यकर्ताओं की मेहनत इस समूह का साथ रहा | दुर्देव है कि राजनीति ने दलालों – अधिकारीयों को बड़ा खेल कोर्ट के अंदर एवम बाहर खेलकर बचाया | क्या कहे ? देवेन्द्र भाई को श्रद्धाजंली  यही होगी कि उसे उजागर करे |
            देवेन्द्र भाई नर्मदा आंदोलन के हर कार्यक्रम में सभा के संचालक रहते आये | कारण यही था कि उन की अभ्यासपूर्णता और स्पष्ट भूमिका के साथ वयक्तव्य भी ठोस रहता था | बहुत उछालते नहीं थे लोगों को, नहि स्वयं तेजी जताते, लेकिन कार्यक्रम के मुद्दे और उद्देश्य समझकर चलाते और सफल बनाते थे, कार्य को |
            स्वयं का परिवार और जाती समाज की ओर भी देवेन्द्र भाई ध्यान देते एवं सक्रिय रहते थे | लेकिन जातिवादी कभी नहीं रहे | आदिवासी और अन्य सभी आंदोलनकारियों के साथ रिश्ता रखते थे | उन्होंने अपने माता – पिता की सेवा, बहने, भानजे बेटी – जमाई, साडू, ब्याही का परिवारवाद धीरे धीरे अधिक प्राथमिकता देकर बढ़ाया | इसलिए कभी आंदोलन के लिए समय नही दे पाये अगर तो मैं डाटती थी | वे समझ जाते, कभी माफी मांगते ..... फिर भी अधिकारी, गाववासी सभी से प्रभावकारी रिश्ता और जानकारी के साथ पेश आकर, कई कार्य सफल बनाते थे | माध्यमकर्ताओं को उनकी यही पहचान थी ..... जिम्मेदारी, जिलास्तरीय माध्यमों से संपर्क की, उन्हीं की थी |

            आंदोलन के सभी कार्यकर्त्ता ही नहीं, गावं गावं के पहाडी आदिवासीयों तक परिचीत देवेन्द्र भाई, किसी भी मीटिंग प्रचार दौरे में अपना प्रभाव और आवाहन पहुंचाते थे , जन जन तक ! पन्द्रह दिन पहले ही अचानक कैंसर से ग्रस्त होना प्रकाश में आया , तब भी मुंबई जाते वक्त जिंदाबाद करके गये ...... 7 अप्रैल के रोज रोजगार पर संगोष्ठी में, सेंचुरी के श्रमिकों के मुद्दे पर समर्थन के आधार पर अपना आख़री वयक्तव्य देकर गये | .............. देवेन्द्र भाई के काका भगवान भाई हमारी टीम के साथ वर्षो पहले 2 महिने सरदार सरोवर से प्रभावित तीनों राज्यों के पहाड़ी, एवम निमाड़ी (मध्यप्रदेश के) गावों में पैदल चले थे, घर घर जाकर हुआ था, ‘लोक निवाड़ा’ .... ‘डूबेंगे पर

हटेंगे नहीं’ के पक्ष में 22000 से अधिक परिवारों का !
            देवेन्द्र भाई उन निमाड़ के किसानों में से एक थे जिन्होंने आंदोलन पर पूरा भरोसा रखकर, पैसे को छुआ तक नहीं | उपजाऊ खेती, गावं और घाटी के संसाधन बचाने की उम्मीद रखी | 8 लाख का मुआवजा न लेकर, पर कार्य काफी किया तो काफी बाकी होते हुए , वे चले गये |  उनका बेटा वकील बन गया तो उसे आदिवासीयों पर अत्याचार करने वाली अल्ट्रा - टेक कंपनी की आँफर आते ही, उन्होंने बेटे से आंदोलन की राय लेकर, उसे नकार दिया आंदोलन की एकेक पीढी बीतते हुए भी, विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों पर कही भी जरूरी होती है जीवटता, जो युवाओं के द्वारा बनाये रखने के सिवाय मंजिल तक कैसे पहुच पाएंगे हम सब ? वही होगी कार्यांजली, देवेन्द्र भाई को !

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